यूपीए-2 सत्ता में दोबारा काबिज़ होगी ऐसा बहुतों को मई 2009 में यकीन नहीं था. त्रिशंकु लोकसभा की तैयारी लगभग हर न्यूज चैनल ने की थी और मानसिक तौर पर हर कोई बस वोट मशीन से नतीजों का इंतजार कर रहा था कि त्रिशंकु जनादेश को किस तरह से दिखाया जा सकेगा. सकून था टीवी पत्रकारों के ज़ेहन में कि अगले दो या तीन दिनों तक खबरों की कमी नहीं होगी.
लेकिन लोकतंत्र में जनता का मन ना तो नेता भांप सकते हैं और ना ही पत्रकार. जनता जनार्दन की लाठी में, ठीक भगवान की लाठी की तरह, आवाज नहीं होती. जब पड़ती है, तब लगता है कि भई, पड़ गई, अब झेलो. क्या बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, वाम दल, हर किसी के मंसूबों पर पानी फिर गया. कांग्रेस की छवि आम आदमी को शायद अपनी लगी और कांग्रेस के नारे को लोगों ने शायद अपने दिल में खासी जगह भी दे दी. ‘आम आदमी के साथ कांग्रेस का हाथ’-एक ऐसा नारा जिसने इंदिरा गांधी के जमाने से देश की जनता को कांग्रेस से किनारा करने से थाम रखा है. नारा – हां तभी तो शायद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से लेकर मामूली कार्यकर्ता तक ने बड़ी आसानी ने इसे भुला भी दिया. पुरानी कहावत है – नेता वही सच्चा जिसका वादा हो कच्चा. यूपीए 2 के नेताओं ने कहावत की लाज रख ली.
वरना कोई भलामानुष जरा ये बताये कि सरकार कर क्या रही है – किसके लिए काम कर रही है. हमारे, आपके लिए या फिर बिचौलियों, बड़े व्यापारियों और कारोबारियों के लिए, सांसदों के लिए, घोटाले करने वाले भ्रष्ट अधिकारियों के लिए, सट्टा बाजार में दूसरों के रुपये से खुद की जेब गरम करने वालों के लिए या फिर विदेशी कंपनियों के बड़े– बड़े अफसरों के लिए. अगर हमारे और आपके लिए सरकार होती तो क्या कमर तोड़
महंगाई पर लगाम कसने के लिए सरकार ने पिछले डेढ साल में दो-चार ठोस कदम नहीं उठाये होते? क्या सरकारी गोदामों में यूं ही लाखों टन अनाज – गेहूं, चावल, दाल, तिलहन – सड़ जाता और गरीब जनता भूखी बिलबिलाती? क्या 19 रुपये किलो चीनी डेढ़ साल में 50 रुपये और अब 34 रुपये किलो बिकती? अरहर की दाल 90 रुपये किलो और चने की दाल 60 रुपये किलो – क्या आप खरीदते? वो तो छोड़िए डेढ़ साल पहले किसने सोचा होगा कि हफ्ते भर की सब्ज़ी खरीदने के लिए 500 – 600 रुपये निकालने होगे.
आम आदमी के साथ सरकार का इतना बड़ा हाथ रहा है कि कमाई अठ्ठनी और खर्चा रुपया वाली हालत हो गयी है. हर मध्यवर्गीय परिवार में आज खर्चों पर काबू करने और कमाई की चादर बढ़ाने का जबरदस्त दबाव है. लेकिन सरकार है कि बस घडि़याली आंसू बहा रही है. पिछले एक साल में जब भी कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि बारिश ठीक नहीं हुई ...फसलों पर असर पड़ा है, ...गन्ने के खेत सूख रहे हैं, ...चीनी की कीमत बढ़ गई. दाल आयात करने का ऑर्डर सरकार ने तब दिया जब पूरी दुनिया में खबर फैल चुकी थी कि भारत में दलहन की किल्लत है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें आसमान पर चढ़ीं और जेब हल्की हुई जनता की. जब हर टीवी चैनल और अखबार में
महंगाई की खबरें छाने लगीं तो कांग्रेस ने हल्के से सहयोगी दल एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार को झटका दिया, कहा गया, ...पवार साहब लाइन पर आ जाइये. पवार ने जरा आनाकानी की तो आईपीएल विवाद में उलझे पवार के करीबी और एनसीपी के नेताओं के खिलाफ जांच की बातें तेज हो गईं. पवार साहब ने फौरन पैंतरा बदला और चीनी के दामों की हवा जरा सी निकल गई.
लेकिन जनता की किसे परवाह ...सरकार फिर मदमस्त हाथी की तरह अपने काम में जुट गई. एक पवार साहब की लगाम कसने से अगर
महंगाई पर नियंत्रण पाया जा सकता है, तो फिर क्या कहने. अनाज की फ्यूचर ट्रेडिंग पर अभी तक कोई रोक नहीं है. लिहाजा बिचौलिये धड़ल्ले से रुपया पीट रहे हैं. पीडीएस का हाल इतना खस्ता है कि गोदामों में अनाज सड़ जाये, बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे के लोग) तक अनाज पहुंचाने के सारे इंतजाम चरमरा चुके हैं. नतीजा, बड़े व्यापारियों की लाटरी लग गई है, क्योंकि गरीब आदमी ऊंची कीमतों पर अनाज बाजार से खरीद रहा है. किसान को फसल के लिए बढ़ी हुई दर देने का वादा सरकार ने किया तो जरुर लेकिन जितना इजाफा हुआ वो गया सरकारी बाबूओं की जेब में. वो इसलिए कि अगर किसान बाबुओं की जेब गरम नहीं करे तो गल्ले की कीमत, शायद अगले साल तक जाकर मिले उन्हें.
भ्रष्टाचार जिंदाबाद. बाकी कसर सरकार ने अपना घाटा पाटने के लिए पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ाकर पूरी कर दी. रोजमर्रा का यातायात तो महंगा हुआ ही, अनाज, सब्जियां, सबकुछ आसमान छूने लगीं. गैस की सब्सिडी कम की गई तो बजट और बिगड़ा. कर्ज महंगा कर सरकार ने दावा किया कि अर्थव्यवस्था से कुछ पैसे बाहर निकाले जायेगे – तो ईएमआई ने मध्य वर्ग के बजट और छितरा दिए. कुल मिलाकर, एक लाइन में कहे तो पिछले डेढ़ सालों में सरकार ने हर वो कदम उठाये जिससे महंगाई बढ़ती गई और जनता पिसती चली गई.
सोचने की बात तो ये है कि देश की बागडोर एक ऐसे आदमी के हाथों में है जिसने 90 के दशक में भारत को एक नई आर्थिक दिशा दी थी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह – जब 2004 में अपनी कुर्सी पर आसीन हुये थे तो उनकी पत्नी से मैंने पूछा था – एक ऐसा फैसला जो आप चाहती है कि बतौर आपके पति मनमोहन सिंह लें. जवाब था – गैस की कीमतों में इजाफा ना हो और
महंगाई काबू में रहे. सिर्फ पांच सालों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री जी ने आपनी पत्नी की बातों को बिसरा दिया है. ना तो संसद में ना किसी रैली में, ना ही सरकार के किसी आदेश के जरिये मनमोहन सिंह ने ये जतलाने की कोशिश की है कि
महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार कुछ कर रही है. या यूं कहे कि करती हुई भी दिखाई दे रही है. ऐसा लगता है कि जैसे सरकार को लकवा मार गया है और जो जिस गठरी से चुरा सकता है, वहीं सेंध लगाये बैठा है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकार ही कुभकर्ण की नींद सोई है, विपक्षी दलों – बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, वाम दल, जेडीयू, आरजेडी – तमाम पार्टियां भी चैन की बंसी बजा रही हैं. नहीं तो सरकार के खिलाफ महंगाई पर मोर्चा निकालने के लिए बीजेपी क्या संसद के शुरु होने का इंतजार करती. जून के महीने में रैली में भाषण देते समय
बीजेपी के अध्यक्ष का अचानक चक्कर खाकर गिरना शायद ही किसी को भूला होगा. बेचारे नितिन गडकरी -एसी में रहने की आदत जब लग जाये तो जून की गर्मी सर चढ़ कर बोलती है -बोले और
गडकरीजी को चक्कर आ गया.
वाम दल तो बीजेपी से भी दो कदम आगे निकले.
महंगाई के खिलाफ रैली की लेकिन कोलकाता में. भई अगले साल, पश्चिम बंगाल में चुनाव भी तो लड़ना है. ममता दीदी से लोहा भी तो लेना है. बाकी देश की जनता महंगाई से दो चार होती है तो हुआ करे. आरजेडी के अध्यक्ष लालू यादव ने तो क्या समां बांधा.
महंगाई पर सरकार को घेरने के लिए महारैला का आयोजन किया – पहले तो कोई ये बताये की ये महारैला, क्या बला है भला. खैर, रैला में लोगों के मनोरंजन के लिए नाच का इंतजाम था और चिलचिलाती धूप से बचने के लिए लालूजी ने रैला को शाम पांच बजे के बाद संबोधित किया. और कहा क्या –
महंगाई के लिए सिर्फ प्रदेश की सरकार ही जिम्मेदार है – नीतीश हटाओ, लालू को लाओ,
महंगाई भगाओ. अब इसे क्या कहेंगे, कोरी वोटनीति या कुछ और?
संसद में
महंगाई पर बहस हुई तो लगा कि सरकार की ओर से कोई ठोस बयान सामने आयेगा. बर्बाद होते अनाज की तस्वीरों को देखने के बाद मंत्रियों का सीना दर्द से भर आएगा. 48 करोड़ भूखी आबादी के लिए शायद सरकारी गोदामों का मुंह खोल दिया जायेगा. लेकिन एलान की बात तो दूर, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो संसद में अपनी बात भी नहीं रखी. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को आगे कर सरकार ने संसद में
महंगाई पर चर्चा के अपने दायित्व का निर्वाह किया. देश की जनता आश्वासन की टकटकी लगाये बैठी रही. लाख टके की एक बात, ना तो सरकार, ना ही विपक्ष, ना ही अधिकारी, ...आम जनता की फिक्र किसी को नहीं. फिक्र है तो सिर्फ इस बात की, आपना घर भरे, दूसरे भले मरें. ...तो ये कैसी है सरकार, किसकी है सरकार?